अध्याय तेरह: क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग

योग द्वारा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभेद को जानना

भगवद्गीता में कुल अठारह अध्याय हैं। इनका तीन खण्डों में विभाजन किया जा सकता है। प्रथम खण्ड के छः अध्यायों में कर्मयोग का वर्णन किया गया है। दूसरे खण्ड में भक्ति की महिमा और भक्ति को पोषित करने का की विधि वर्णन हुआ है। इसमें भगवान के ऐश्वर्यों का भी वर्णन किया गया है। तीसरे खण्ड के छः अध्यायों में तत्त्वज्ञान पर चर्चा की गयी है। यह तीसरे खण्ड का प्रथम अध्याय है। यह दो शब्दों क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता) से परिचित कराता है। हम शरीर को क्षेत्र के रूप में और शरीर में निवास करने वाली आत्मा को शरीर के ज्ञाता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। किंतु क्षेत्र का अर्थ वास्तव में अधिक व्यापक हैं। इसमें मन, बुद्धि, अहंकार और माया (प्राकृत) शक्ति के अन्य सभी घटक भी सम्मिलित हैं, जिनसे हमारा व्यक्तित्त्व निर्मित होता है। अतः देह के अंतर्गत आत्मा को छोड़कर हमारे व्यक्तित्व के सभी पहलू सम्मिलित हैं। जिस प्रकार किसान खेत में बीज बो कर खेती करता है। इसी प्रकार से हम अपने शरीर को शुभ-अशुभ विचारों और कर्मों से पोषित करते हैं और अपना भाग्य बनाते हैं। 

महात्मा बुद्ध ने कहा है-"हम जैसा सोचते हैं वही हमारे सामने परिणाम के रूप में आ जाता है" इसलिए हम जैसे सोचते हैं वैसे बन जाते हैं। महान अमेरिकी विचारक राल्फ वाल्डो एमर्सन ने कहा है-"विचार ही सभी कर्मों का जनक है।" इसलिए हमें शुभ विचारों और कर्मों से अपने शरीर को पोषित करने की विधि सीखनी चाहिए। इसके लिए शरीर और शरीर के ज्ञाता के बीच के भेद को जानना आवश्यक है। 

इस अध्याय में श्रीकृष्ण इस भेद का विस्तृत विश्लेषण करते हैं। वे माया के उन तत्त्वों की गणना करते हैं जिनसे शरीर की रचना होती है। वे शरीर में होने वाले भावनाओं, मत, दृष्टिकोण आदि का वर्णन करते हैं। वे उन गुणों और विशेषताओं का भी उल्लेख करते हैं जो मन को शुद्ध और उसे ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करते हैं। इस ज्ञान से आत्मा की अनुभूति करने में सहायता मिलती है। तत्पश्चात् इस अध्याय में भगवान के स्वरूप का अद्भुत वर्णन किया गया है। भगवान विरोधी गुणों के अधिष्ठाता हैं, अर्थात् वे एक ही समय में विरोधाभासी गुणों को प्रकट करते हैं। इस प्रकार से वे सृष्टि में सर्वत्र व्यापक भी हैं और सभी के हृदयों में भी निवास करते हैं। इसलिए वे सभी जीवों की परम आत्मा हैं। आत्मा, परमात्मा और माया शक्ति का वर्णन करने के पश्चात् श्रीकृष्ण आगे यह व्याख्या करते हैं कि जीवों द्वारा किए जाने वाले कर्मों के लिए इनमें से कौन उत्तरदायी है? और संसार में कारण और कार्य का करता कौन है? वे जिन्हें इसे भेद का बोध हो जाता है और जो भली भांति कर्म के कारण को जान लेते हैं, वही वास्तव में देखते हैं और केवल वही दिव्य ज्ञान में स्थित हो जाते हैं। वे सभी जीवों में परमात्मा को देखते हैं और इसलिए वे किसी को अपने से हीन नहीं समझते। वे एक ही माया शक्ति में स्थित विविध प्रकार के प्राणियों को देख सकते हैं और जब वे सभी अस्तित्त्वों में एक ही सत्ता को देखते हैं तब उन्हें ब्रह्म की अनुभूति होती है।

Bhagavad Gita 13.1 View Commentary » View »

अर्जुन ने कहा-हे केशव! मैं यह जानने का इच्छुक हूँ कि प्रकृति क्या है और पुरुष क्या है तथा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या है? मैं यह भी जानना चाहता हूँ कि वास्तविक ज्ञान क्या है और इस ज्ञान का लक्ष्य कौन है?

Bhagavad Gita 13.2 View Commentary » View »

परम पुरुषोतम भगवान ने कहाः हे अर्जुन! इस शरीर को क्षेत्र (कर्म क्षेत्र) के रूप में परिभाषित किया गया है और जो इस शरीर को जान जाता है उसे क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता) कहा जाता है।

Bhagavad Gita 13.3 View Commentary » View »

हे भरतवंशी! मैं समस्त शरीरों के कर्म क्षेत्रों का भी ज्ञाता हूँ। कर्म क्षेत्र के रूप में शरीर को तथा, आत्मा और भगवान को इस शरीर के ज्ञाता के रूप में जान लेना मेरे मतानुसार वास्तविक ज्ञान है।

Bhagavad Gita 13.4 View Commentary » View »

सुनो अब मैं तुम्हें समझाऊंगा कि कर्म क्षेत्र और इसकी प्रकृति क्या है, इसमें कैसे परिवर्तन होते है और यह कहाँ से उत्पन्न हुआ है, कर्म क्षेत्र का ज्ञाता कौन है और उसकी शक्तियाँ क्या हैं?

Bhagavad Gita 13.5 View Commentary » View »

ऋषियों ने अनेक रूप से क्षेत्र का और क्षेत्रज्ञ का वर्णन किया है। इसका उल्लेख विभिन्न वैदिक स्तोत्रों और विशेष रूप से ब्रह्मसूत्र में ठोस तर्क और अनेक साक्ष्यों द्वारा प्रकट किया गया है।

Bhagavad Gita 13.6 View Commentary » View »

कर्म का क्षेत्र पाँच महातत्त्वों-अहंकार, बुद्धि और अव्यक्त, ग्यारह इन्द्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियों और मन) और इन्द्रियों के पाँच विषयों से निर्मित है।

Bhagavad Gita 13.7 View Commentary » View »

इच्छा और द्वेष, सुख और दुःख, शरीर, चेतना और इच्छा शक्ति ये सब कार्य क्षेत्र तथा उसके विकार में सम्मिलित हैं। श्रीकृष्ण अब इस क्षेत्र के गुणों और उसके विकारों को स्पष्ट करते हैं।

Bhagavad Gita 13.8 - 13.12 View Commentary » View »

नम्रता, आडंबरों से मुक्ति, अहिंसा, क्षमा, सादगी, गुरु की सेवा, मन और शरीर की शुद्धता, दृढ़ता और आत्मसंयम, विषयों के प्रति उदासीनता, अहंकार रहित होना, जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु के दोषों पर ध्यान देना, अनासक्ति, स्त्री, पुरुष, बच्चों और घर सम्पत्ति आदि वस्तुओं के प्रति ममता रहित होना। जीवन में वांछित और अवांछित घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति अनन्य और अविरल भक्ति, एकान्त स्थानों पर रहने की इच्छा, लौकिक जनों के प्रति विमुखता, आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिरता और परम सत्य की खोज, इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और जो भी इसके प्रतिकूल हैं उसे मैं अज्ञान कहता हूँ।

Bhagavad Gita 13.13 View Commentary » View »

अब मैं तुम्हें वह बताऊंगा जो जानने योग्य है और जिसे जान लेने के पश्चात् जीव अमरत्व प्राप्त कर लेता है। यह जेय तत्त्व अनादि ब्रह्म है जो सत् और असत् से परे है।

Bhagavad Gita 13.14 View Commentary » View »

भगवान के हाथ, पाँव, नेत्र, सिर, तथा मुख सर्वत्र हैं। उनके कान भी सभी ओर हैं क्योंकि वे ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु में व्याप्त हैं।

Bhagavad Gita 13.15 View Commentary » View »

यद्यपि वे समस्त इन्द्रिय विषयों के गोचर हैं फिर भी इन्द्रिय रहित रहते हैं। वे सभी के प्रति अनासक्त होकर भी सभी जीवों के पालनकर्ता हैं। यद्यपि वे निर्गुण है फिर भी प्रकृति के तीनों गुणों के भोक्ता हैं।

Bhagavad Gita 13.16 View Commentary » View »

भगवान सभी के भीतर एवं बाहर स्थित हैं चाहे वे चर हों या अचर। वे सूक्ष्म हैं इसलिए वे हमारी समझ से परे हैं। वे अत्यंत दूर हैं लेकिन वे सबके निकट भी हैं।

Bhagavad Gita 13.17 View Commentary » View »

यद्यपि भगवान सभी जीवों के बीच विभाजित प्रतीत होता है किन्तु वह अविभाज्य है। परमात्मा सबका पालनकर्ता, संहारक और सभी जीवों का जनक है।

Bhagavad Gita 13.18 View Commentary » View »

वे समस्त प्रकाशमयी पदार्थों के प्रकाश स्रोत हैं, वे सभी प्रकार की अज्ञानता के अंधकार से परे हैं। वे ज्ञान हैं, वे ज्ञान का विषय हैं और ज्ञान का लक्ष्य हैं। वे सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं।

Bhagavad Gita 13.19 View Commentary » View »

इस प्रकार मैंने तुम्हें कर्म क्षेत्र की प्रकृति, ज्ञान का अर्थ और ज्ञान के लक्ष्य का ज्ञान कराया है। इसे वास्तव में केवल मेरे भक्त ही पूर्णतः समझ सकते हैं और इसे जानकर वे मेरी दिव्य स्वरूप को प्राप्त होते हैं।

Bhagavad Gita 13.20 View Commentary » View »

प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) दोनों अनादि हैं। शरीर में होने वाले सभी परिवर्तन और प्रकृति के तीनों गुणों की उत्पत्ति माया शक्ति से होती है।

Bhagavad Gita 13.21 View Commentary » View »

सृष्टि के विषय में माया शक्ति ही कारण और परिणाम के लिए उत्तरदायी है और सुख-दुःख की अनुभूति हेतु जीवात्मा को उत्तरदायी बताया जाता है।

Bhagavad Gita 13.22 View Commentary » View »

पुरुष अर्थात् जीव प्रकृति में स्थित हो जाता है, प्रकृति के तीनों गुणों के भोग की इच्छा करता है, उनमें आसक्त हो जाने के कारण उत्तम और अधम योनियों में जन्म लेता है।

Bhagavad Gita 13.23 View Commentary » View »

इस शरीर में परमेश्वर भी रहता है। उसे साक्षी, अनुमति प्रदान करने वाला, सहायक, परम भोक्ता, परम नियन्ता और परमात्मा कहा जाता है।

Bhagavad Gita 13.24 View Commentary » View »

वे जो परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति के सत्य और तीनों गुणों की प्रकृति को समझ लेते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते। उनकी वर्तमान स्थिति चाहे जैसी भी हो, वे मुक्त हो जाते हैं।

Bhagavad Gita 13.25 View Commentary » View »

कुछ लोग ध्यान द्वारा अपने हृदय में बैठे परमात्मा को देखते हैं और कुछ लोग ज्ञान के संवर्धन द्वारा जबकि कुछ अन्य लोग कर्म योग द्वारा देखने का प्रयत्न करते हैं।

Bhagavad Gita 13.26 View Commentary » View »

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आध्यात्मिक मार्ग से अनभिज्ञ होते हैं लेकिन वे संत पुरुषों से श्रवण कर भगवान की आराधना करने लगते हैं। वे भी धीरे-धीरे जन्म और मृत्यु के सागर को पार कर लेते हैं।

Bhagavad Gita 13.27 View Commentary » View »

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! चर और अचर जिनका अस्तित्व तुम्हें दिखाई दे रहा है वह कर्म क्षेत्र और क्षेत्र के ज्ञाता का संयोग मात्र है।

Bhagavad Gita 13.28 View Commentary » View »

जो परमात्मा को सभी जीवों में आत्मा के साथ देखता है और जो इस नश्वर शरीर में दोनों को अविनाशी समझता है, केवल वही वास्तव में देखता है।।

Bhagavad Gita 13.29 View Commentary » View »

वे जो भगवान को सर्वत्र और सभी जीवों में समान रूप से स्थित देखते हैं वे अपने मन से स्वयं की हानि नहीं करते। इस प्रकार से वे अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

Bhagavad Gita 13.30 View Commentary » View »

जो यह समझ लेते हैं कि शरीर के समस्त कार्य माया द्वारा सम्पन्न होते हैं तथा देहधारी आत्मा वास्तव में कुछ नहीं करती। केवल वही वास्तव में देखते हैं।

Bhagavad Gita 13.31 View Commentary » View »

जब वे सभी प्राणियों को एक ही परमात्मा में स्थित देखते हैं और उन सबको उसी से उत्पन्न समझते हैं तब वे ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

Bhagavad Gita 13.32 View Commentary » View »

परमात्मा अविनाशी है और इसका कोई आदि नहीं है और यह प्रकृति के गुणों से रहित है। हे कुन्ती पुत्र! यद्यपि यह शरीर में स्थित है किन्तु यह न तो कर्म करता है और न ही माया शक्ति से दूषित होता है।

Bhagavad Gita 13.33 View Commentary » View »

आकाश सबको अपने में धारण कर लेता है लेकिन सूक्ष्म होने के कारण जिसे यह धारण किए रहता है उसमें लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार से यद्यपि आत्मा चेतना के रूप में पूरे शरीर में व्याप्त रहती है फिर भी आत्मा शरीर के धर्म से प्रभावित नहीं होती।

Bhagavad Gita 13.34 View Commentary » View »

जिस प्रकार से एक सूर्य समस्त ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार से आत्मा पूरे शरीर को प्रकाशित करती है।

Bhagavad Gita 13.35 View Commentary » View »

जो लोग ज्ञान चक्षुओं से शरीर और शरीर के ज्ञाता के बीच के अन्तर और माया शक्ति के बन्धनों से मुक्त होने की विधि जान लेते हैं, वे परम लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं।
Swami Mukundananda

13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग

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